Monday, September 27, 2010

यूनिवर्सिटी में झकमारी १

हम सब उनकी नजरों में वक्त बर्बाद कर रहे थे। पढ़ाना उनका काम था और लापरवाही से पढ़ना हमारा। रोज की तरह क्लास किसी छात्र की बखिया उधेड़ने के साथ शुरु होती थी। किसकी शामत कब आ जाए और कौन किस तरह जलील कर दिया जाए कुछ तय नहीं था। कुर्सी पर बैठना उन्हें गंवारा नहीं था। एक बिगड़ैल छात्र नेता की तरह वो हमेशा मेज पर बैठते। गरममिजाजी और अंग्रेजो के वक्त अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने का अहंकार हमेशा उनके चेहरे पर चिपका रहता। स्टाफरुम में मजामा लगाए रखना उनका शौक भी था और टाइमपास भी। आलोचना उनका प्रिय सब्जेक्ट था और उनकी आलोचना की जद में फैकल्टी से लेकर एचओडी तक सब आते थे। उनके मुताबिक हर इंसान पैदाइशी बेवकूफ था। अंग्रेजी बोलने वाले उन्हें बिल्कुल नापसंद थे। उनका मानना था कि अंग्रेजी बोलना और वो भी सही बोलना सिर्फ और सिर्फ उनका कॉपीराइट है जो अंग्रेज उन्हें देकर गए हैं। उनकी नजरों में अंग्रेजों की छोड़ी गई अंग्रेजी के असली उत्तराधिकारी वही थे। बालों की सफेदी से उनकी उम्र का पता लगाना बिल्कुल आसान था लेकिन इस सफेदी से बेपरवाह वो हमेशा चुस्त दुरुस्त दिखने की कोशिश में रहते। पुराने स्कूटर को वो हवाई जहाज की तरह उड़ाते। ये उनकी शख्सियत का वो पहलू था जो उन्हें डिपार्टमेंट में हंसी का पात्र बनाता था। डिपार्टमेंट की विडंबनाओं में ये अकेली विडंबना नहीं थी। हिंदी डिपार्टमेंट से किसी मनहूस घड़ी में एक बिजली पत्रकारिता विभाग पर गिरी थी और एचओडी नाम की कुर्सी पर जा बैठी थी। खुद के उच्चारण की तमाम दिक्कतों के बावजूद विभाग की जिम्मेदारियां उठाने वाले हमारे एचओडी साहब हमारी भाषा दुरुस्त करने की जिम्मेदारी तन और मन से तो नहीं हां धन से जरुर उठा रहे थे। खुद की नजरों में वो पत्रकारिता के उद्धार के लिए पैदा किए गए थे। उनके बालों का कालापन हमारे लिए रहस्य था। बालों को वो गोंद से चिपकाते थे या फिर तेल से कह पाना कठिन था। चेहरे पर जबरदस्ती का रौब दिखाकर छात्रों से दूरी बनाए रखना उन्हें पसंद था। खुद को रहस्यवाद की चादर में समेट कर अपने विवेक पर पड़े पर्दे पर पर्दा डालने का काम वो काफी वक्त से बखूबी कर रहे थे। हमें क्या और क्यों पढ़ाया जा रहा था ये ना तो हमारे आदरणीय अध्यापकों को पता था और ना ही ज्यादातर छात्र इस गूढ़ रहस्य को जानने में रुचि ही रखते थे। लगभग सभी फीस देकर यूनिवर्सिटी के किसी भी क्लास में बैठने के अधिकार को इज्वाय कर रहे थे। सबकी अपनी अपनी उपस्थिति की एक्सक्लूसिव वजहें थीं। कुछ पत्रकारिता को नेतागिरी का क्रैश कोर्स मानकर यहां आए थे तो कुछ पत्रकारिता नाम की आभा में अंधे होकर यहां पहुंचे थे। कुल मिलाकर हम पत्रकारिता के सुरेन्द्र मोहन काल ( हिंदी के भक्ति काल,आधुनिक काल की तरह पत्रकारिता का ये काल जिसमें आजकल हम कीबोर्ड चटका रहे हैं) में कदम रखने के लिए कमर कस रहे थे।(जारी)